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वसंत के इस निर्जन में / आलोक श्रीवास्तव-२
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11:07, 12 फ़रवरी 2010
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<Poem>
मन का सौंदर्य
नष्त
नष्ट
नहीं होता
बह जाई हैं कितनी नदियाँ
कितने पर्वत-शिखरों से होकर
Himanshu
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