भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अवधि होगई पूर्ण अन्त में,
सुयश छा रहा है दिगन्त में।
स्वजनि, धन्य है आज की घड़ी,तदपि खिन्न-सी तू यहाँ खड़ी!त्वरित आरती ला, उतार लूँ,पद दृगम्बु से मैं पखार लूँ।चरण हैं भरे देख, धूल से,विरह-सिन्धु में प्राप्त कूल-से।विकट क्या जटाजूट है बना,भृकुटि युग्म में चाप-सा तना।वदन है भरा मन्द हास से,गलित चन्द्र भी श्री-विलास से।
</poem>