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23:32, 15 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=क़तील शिफ़ाई
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देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो<br />
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो
लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे<br />
यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो
गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है<br />
तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो
ग़म कोई भी हो जवानी में मज़ा देता है<br />
ग़म-ए-जहाँ जो नहीं है ग़म-ए-दौरान ही सहो
हो चुके प्यार में रुसवा सर-ए-बाज़ार क़तील<br />
अब कोई हम को नहीं फ़िक्र जो होना है सो हो
</poem>