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20:33, 17 फ़रवरी 2010
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|रचनाकार=भरत प्रसाद
|संग्रह=एक पेड़ की आत्मकथा / भरत प्रसाद}}
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<poemPoem>सुना है-प्रातः बेलाममता टटके सूरज को जी भर देखेकितने दिन बीत गए।नहीं देख पायापेड़ों के स्वभाववशपीछे उसेमाता की छाती छिप-छिपकर उगते हुए।नहीं सुन पायाभोर आने सेपहलेझरकई चिड़ियों का एक साथ कलरव।नहीं पी पायादुपहरी की बेलाआम के बगीचे में झुर-झर दूध छलकता हैझुर बहतीशीतल बयार।
मैं तो अल्हड़ बचपन उजास होते हीगेहूँ काटने के लिएकिसानों, औरतों, बच्चों और बेटियों का जत्थामेरे गाँव सेहोकरझुकी हुई सांवली घटाओं आज भी जाता होगा। देर रात तकआज भीखलिहान मेंधारासार दूध बरसता हुआपकी हुई फ़सलों का बोझखनकता होगा।हमारे सीवान की गोधूलि बेलाघर लौटते हुएबछड़ों की हर्ष-ध्वनि सेदेखता चला आ रहा हूँ।आज भी गूँजती होगी।
आत्मविभोर कर देने वालाफिर कब देखूँगा?यह विस्मयगनगनाती दुपहरिया मेंमुझे प्रकृति सघन पत्तियों के प्रतिबीच छिपा हुआअथाह कृतज्ञता चिड़ियों का जोड़ा।फिर कब सुनूँगा?कहीं दूरकिसी किसान के मुँह सेभर देता रात के सन्नाटे में छिड़ा हुआकबीर का निर्गुन-भजन।फिर कब छूऊँगा?अपनी फसलों की जड़ेंउसके तने, हरी-हरी पत्तियाँउसकी झुकी हुई बालियाँ। अपने घर के पिछवाड़ेडूबते समयडालियों, पत्तियों में झिलमिलाता हुआ सूरजबहुत याद आता है।अपने चटक तारों के साथरात में जी-भरकर फैला हुआमेरे गाँव के बगीचे मेंझरते हुए पीले-पीले पत्तेकब देखूँगा?उसकी डालियों, शाखाओं परआत्मा को तृप्त कर देने वालीनई-नई कोंपलें कब देखूँगा?
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