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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
हमनवा<ref>साथी</ref> कोई नहीं है वो चमन मुझको दिया
हमवतन बात न समझें वो वतन मुझको दिया।

ऐ जुनूँ आज उन आँखों की दिलाकर मुझे याद
तू ने सौ ख़ित्ता-ए-आहू-ए-ख़ुतन मुझको दिया।

मुज़दा-ए-कौसरो-तसनीम दिया औरों को
शुक्र, सदशुक्र! ग़मे-गँगो-जमन मुझको दिया।

ढक लिये तारों भरी रात ने हस्ती के उयूब
आँसुओं ने शबे-गु़र्बत में कफ़न मुझको दिया।

अर्ज़े-जन्नत<ref>जन्नत की ज़मीन</ref> के भी बस में नहीं जिसका देना
हिन्द की ख़ाक़ ने वो सोजे़-वतन मुझको दिया।

बहदते-आशिको-माशूक़ की तस्वीर हूँ मैं
नल का ईशार तो एख़लासे-दमन मुझको दिया।

क़दे-राना की क़सम, नर्म सबाहत<ref>नमकीनी</ref> की क़सम
इश्क़ ने क्या चमने-सर्वो-समन मुझको दिया।

मिल गया मुझको जमाले-रुखे़-रंगीं का चमन
दिले-सोजाँ का ये तपता हुआ बन, मुझको दिया।

तेरे बत्लान<ref>तत्त्व</ref> थे लाये जो मुझे हक़ की तरफ़
तूने ईमान मेरा शैखे़-जमन मुझको दिया।

मेरे दिल से मेरा हर शेर कह उट्ठा तूने
इशवाज़ारे<ref>नाज़-नखरा</ref>-निगहे-सामरी-फ़न मुझको दिया।

नारा-ए-हक़ ने किया मर्तबाये-इश्क़ बलन्द
मनसबे-जल्वादहे-दारो-रसन मुझको दिया

दस्ते-क़ुदरत ने बस इक पैकरे-ख़ाकी, जिसमें
सहरे नौ की थी ख़ाबीदा किरन मुझको दिया।

ख़त्म है मुझ पर, गज़लगोई-ए-दौरे-हाज़िर
देने वाले ने वो अन्दाज़े-सुखन मुझको दिया।

शाएरे-अस्र की तक़दीर न कुछ पूछ ’फ़िराक़’
जो कहीं का भी न रक्खेगा वो फ़न मुझको दिया।
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</poem>
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