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छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार <ref>ग़ैर</ref> की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन <ref>तसल्ली</ref> को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों <ref>दोस्तों</ref> ने गली में यार की
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
</poem>
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