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20:13, 28 फ़रवरी 2010
गरज-गरज शोर करत काली घटा, जिया न लागे हमार।{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=इंदीवर}}[[Category:गीत]]<poem>वक़्त करता जो वफ़ा आप हमारे होतेहम भी ग़ैरों की तरह आप को प्यारे होतेवक़्त करता जो वफ़ा ...
अपनी तक़दीर में पहले ही कूछ तो ग़म हैं
और कुछ आप की फ़ितरत में वफ़ा भी कम है
वरन जीती हुई बाज़ी तो ना हारे होते
वक़्त करता जो वफ़ा ...
बिजली बन कर चमकती मेरे मन की आग।हम भी प्यासे हैं ये साक़ी को बता भी न सकेसामने जाम था और जाम उठा भी न सकेकाश ग़ैरते-महफ़िल के न मारे होतेवक़्त करता जो वफ़ा ...
आहें मेरी बन गईं न्यारे-न्यारे राग।। सावन की भीगी दम घुटा जाता है रात, सखी सुन री मेरी तू बात।सीने में फिर भी ज़िंदा हैंतुम से क्या हम तो ज़िंदगी से भी शर्मिन्दा हैंहै नैनों में आँसुओं की धार, जिया मर ही जाते जो न लागे हमार।। गरज...यादों के सहारे होते मेरे आँसू बरसते लोग कहें बरसात। पल-पल आवत याद है पिया मिलन की रात।। कोयल की दरदीली तान सखि दिल में मारत बान। अब कैसे हो मुझ को करार, जिया न लागे हमार।। गरजवक़्त करता जो वफ़ा ...</poem>