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'''गीतकार {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=शैलेन्द्र}}[[Category: मजरुह सुल्तानपुरी'''गीत]]<poem>रुला कर चल दिये इक दिन हँसी बन कर जो आये थेचमन रो-रो के कहता हैकभी गुल मुस्कुराये थे
अगर दिल के ज़ुबां होती तो
ग़म कुछ कम तो हो जाता
उधर वो चुप इधर सीने में
हम तूफ़ां छुपाये थे
चमन रो-रो के कहता है ...
मिला दिल, मिल के टूटा जा रहा है<br />ये अच्छा था न हम कहते नसीबा बन के फूटा जा रहा है..  दवा-ए-दर्द-ए-दिल मिलनी थी जिससे<br />वही अब हम किसी से रूठा जा रहा है दास्तां अपनीसमझ पाये न जब अपनेअंधेरा हर तरफ़, तूफ़ान भारी<br />पराये तो पराये थेऔर उनका हाथ छूटा जा रहा चमन रो-रो के कहता है ... दुहाई अहल-ए-मंज़िल की, दुहाई<br /poem>मुसाफ़िर कोई लुटा जा रहा है
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