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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=नज़ीर अकबराबादी]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=नज़ीर ग्रन्थावली / नज़ीर अकबराबादी]]}}{{KKCatNazm}}<poem>क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले।निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले॥चोटी कोई रखा ले बद्घी कोइ पिन्हा ले।हंसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले।मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले॥क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले॥1॥
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना।
उनकी बला से घर ें हो कै़द या कि घिरना।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।
मां ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले॥3॥
जो कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं।गुड़, बेर, मूली, गाज़र, ले मुंह में घोटते हैं॥बाबा की मूंछ मां की चोटी खसोटते हैं।गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं॥कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें।क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।भाले॥4॥
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।