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निंदिया / शैलेन्द्र

No change in size, 14:24, 1 मार्च 2010
<poem>
पास देख अनजान अतिथि को--
दबे पांव पाँव दरवाज़े तक आ,
लौट गई निंदिया शर्मीली!
दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
कब आएं आएँ बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
शून्य रात की घड़ियां घड़ियाँ आधीऔर झांक झाँक खिड़की से जब तब
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!
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