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उगी है धूप / शांति सुमन

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<poem>
पत्तियों में दबी थी धूप
जो उभर रही है धीरे-धीरे
इस धूप में बहुत कुछ है
जो बहुत देर और दूर तक
बदल देते हैं दिन के सर्वनाम
धूप जो काटती है
कुहासों की परतें
और खपरैलों से होकर
सरक जाती है पेड़ की
फुनगियों तक
पहुँचती है वहाँ भी
जहाँ माँ की गोद में
अंगूठा चूसता बच्चा
हँस रहा है बेसाख्ता
और फिसली जा रही है
माँ की अंगुलियाँ
बच्चे की तेलाई देह पर
माँ दिखाती है धूप
आज का दिन कितना खुशनुमा है-
कहती है
उगी है धूप -
तुम्हारे ही लिये
तुम्हारी हँसी की तरह
तुम हँसते रहो
कि खिली रहे यह धूप
तुम्हारी हँसी के लिये ।



</poem>




२८ सितम्बर, १९९०
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