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[[Category:रूसी भाषा]]
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'''(यह कविता स्तालिन के बारे में है)'''
पहाड़ों में निष्क्रिय है देव, हालाँकि है पर्वत का वासी
 
शांत,सुखी उन लोगों को वह, लगता है सच्चा-साथी
 
कंठहार-सी टप-टप टपके, उसकी गरदन से चरबी
 
ज्वार-भाटे-से वह ले खर्राटें, काया भारी है ज्यूँ हाथी
 
बचपन में उसे अति प्रिय थे, नीलकंठी सारंग-मयूर
 
भरतदेश का इन्द्रधनु पसन्द था औ' लड्डू मोतीचूर
 
कुल्हिया भर-भर अरुण-गुलाबी पीता था वह दूध
 लाह-कीटों <ref>पुराने ज़माने में लाह-कीटों से ही वह लाल रंग बनाया जाता था, जिससे कुम्हार कुल्हड़ों और मिट्टी के अन्य बर्तनों को रंगा करते थे ।</ref> का रुधिर ललामी, मिला उसे भरपूर 
पर अस्थिपंजर अब ढीला उसका, कई गाँठों का जोड़
 
घुटने, हाथ, कंधे सब नकली, आदम का ओढे़ खोल
 
सोचे वह अपने हाड़ों से अब और महसूस करे कपाल
 
बस याद करे वे दिन पुराने, जब वह लगता था वेताल
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1. पुराने ज़माने में लाह-कीटों से ही वह लाल रंग बनाया जाता था, जिससे कुम्हार कुल्हड़ों और मिट्टी के अन्य  बर्तनों को रंगा करते थे ।  ('''रचनाकाल ''' :10-26 दिसम्बर 1936)</poem>
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