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भाषा का युद्ध / रघुवीर सहाय

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|रचनाकार = रघुवीर सहाय|संग्रह = एक समय था / रघुवीर सहाय
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जब हम भाषा के लिये लड़ने के वक़्त
 
यह देख लें कि हम उससे कितनी दूर जा पड़े हैं
 
जिनके लिये हम लड़ते हैं
 
उनको हमको भाषा की लड़ाई पास नहीं लाई
 
क्या कोई इसलिये कि वह झूठी लड़ाई थी
 
नहीं बल्कि इसलिए कि हम उनके शत्रु थे
 
क्योंकि हम मालिक की भाषा भी
 
उतनी ही अच्छी तरह बोल लेते हैं
 
जितनी मालिक बोल लेता है
 
वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध
 
जो सिर्फ़ अपनी भाषा बोलेगा
 
मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं
 
चाहे वह शास्त्रार्थ न करे जीतेगा
 
बल्कि शास्त्रार्थ वह नहीं करेगा
 
वह क्या करेगा अपने गूंगे गुस्से को वह
 
कैसे कहेगा ? तुमको शक है
 
गुस्सा करना ही
 
गुस्से की एक अभिव्यक्ति जानते हो तुम
 
वह और खोज रहा है तुम जानते नहीं ।
('''जनवरी 1972 में रचित, कवि के मरणोपरांत प्रकाशित 'एक समय था' नामक कविता-संग्रह से )'</poem>
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