|संग्रह=ख़त्म नही होती बात / बोधिसत्व
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<poem>
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे ज़िंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती है
किराने की दुकान पर।
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते उनकी यह इच्छा जान गए थे<br>उनके डॉक्टर भीवे हर मिलने वाले से कहते कि<br>सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने कीबहुत पर कुछ भी काम नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।<br><br>आया।
वे जिंदगी माँ ने मनौतियाँ मानी कितनीमैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तकसबसे रोती रही वह अपने सुहाग को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो<br>किराने ध्रुव तारे की दुकान पर।<br><br>तरहअटल करने के लिएपर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी<br>1997 मेंसब जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनियाबहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली कापूरी कोशिश की पिता बाँह का स्वेटरउनके सिरहाने बैठ करडालती रही स्वेटरमें फंदा कि शायदस्वेटर बुनता देख मौत को बचाने की<br>आए दया,भाई ने खरीदा था कंबलपर सब कुछ भी काम नहीं आया।<br><br>धरा रह गयाघर पर ......
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी<br>मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक<br>सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को<br>ध्रुव तारे की तरह<br>अटल करने के लिए<br>पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।<br><br>बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
1997 में<br>जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया<br>बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का<br>पूरी बाँह का स्वेटर<br>उनके सिरहाने बैठ ज्यादा नहीं 2001 कर<br>जीना चाहते थेडालती रही स्वेटर<br>दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं1936 में फंदा कि शायद<br>जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तकस्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,<br>भाई पर देह ने खरीदा था कंबल<br>नहीं दिया उनका साथपर सब कुछ धरा रह गया<br>घर पर ......<br><br>दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
बाद में ले इच्छाएँ कई और थीं पिता कीजो पूरी नहीं हुईंकई और सपने थे ....अधूरे....वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थेपर नहीं मिले उन्हें तीन-चार सालहार गए महापात्र सब ढोकर।<br><br>पिताजीत गया काल ।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे<br>
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं<br>
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक<br>
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ<br>
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।<br><br>
इच्छाएँ कई और थीं पिता की<br>जो पूरी नहीं हुईं<br>कई और सपने थे ....अधूरे....<br>वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे<br>पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल<br>हार गए पिता<br>जीत गया काल ।<br><br><br> ('''रचना तिथि- ''' : 13 अक्टूबर 2007}br><br/poem>