{{KKRachna
|रचनाकार=बोधिसत्व
|संग्रह=ख़त्म नही होती बात / बोधिसत्व
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('''कलकत्ता में मिले बंगाली विद्वान परिमलेंदु ने यह वृत्तांत सुनाया)<br><br>'''
बरस रहा था देर से पानी<br>भीगने से बचने के लिए मैं<br>रुका था दक्षिण कलकत्ता में<br>एक पेड़ के नीचे,<br>वहीं आए पानी से बचते-बचाते<br>परिमलेंदु बाबू।<br><br>
परिमलेंदु बाबू<br>टैगोर के भक्त थे<br>बात-चीत के बीच<br>उन्हों नें बताया टैगोर के बारे में एक किस्सा<br>आप भी सुनें।<br><br>
कभी बीरभूम में चार औरतें रहतीं थीं<br>उन्हें देख कर लगता था कि वे या तो<br>किसी मेले में जा रहीं हैं<br>या लौट रहीं हैं किसी जंगल से।<br><br>
वे चारों हरदम साथ रहतीं थीं<br>उनकी आँखें नहीं थीं<br>वे बनीं थीं मिट्टी में कपास और भूँसी मिला कर<br>उनसे आती थी भुने अन्न की महक।<br><br>
चारों दिखतीं थी एक सी<br>एक सी नाक<br>एक से हाथ-पांव-कान<br>एक सी थी बोली उनकी।<br><br>
कौन था उनका जनक<br>कौन भर्ता, कौन पुत्र कौन जननी कौन पुत्री<br>नहीं जानतीं थीं वे<br>उन्हें तो यह भी नहीं पता था ठीक-ठीक<br>कि किसने छीन<br>लीं उनकी आँखें।<br><br>
पर उन्हें यह पता था कि<br>उनके पीछे-पीछे चलते हैं ठाकुर<br>वही ठाकुर जिन्हें सब<br>गुरुदेव कह कर बुलाती है<br>वही द्वारका ठाकुर का आखिरी बेटा<br>वही जिसे हाथी पाव है<br>तो वे चारों औरतें<br>टैगोर के लिए थोड़ा धीमें चलतीं थीं वे।<br><br>
उन औरतों की आवाज के सहारे<br>टैगोर खोजते-पाते थे रास्ता<br>टैगोर भी हो चले थे अंधे<br>लोग हैरान थे<br>टैगोर के अचानक अंधेपन पर।<br><br>
लोग टैगोर को उन औरतों से अलग<br>ले जाना चाहते थे<br>गाड़ी में बैठा कर<br>पर टैगोर<br>उन औरतों की आवाज के अलावा<br>सुन नहीं रहे थे और कोई आवाज।<br><br>
जब कभी टैगोर छूट जाते थे बहुत पीछे<br>किसी बहाने रुक कर वे चारों<br>उनके आने का इंतजार करतीं थीं।<br><br>
जोड़ा शांको और बीरभूम के लोग बताते हैं<br>कि जीवन भर टैगोर चलते रहे<br>उन चारों औरतों की आवाज के सहारे<br>जब बिछुड़ जाते थे उन औरतों से तो<br>आव-बाव बकने लगते थे<br>बिना उन औरतों के उन्हे<br>कल नहीं पड़ता था<br>अब यह सब कितना सच है<br>कितना गढ़ंत यह कौन विचारे।<br><br>
यह जरूर था कि<br>अक्सर पाए जाते थे<br>टैगोर उन अंधी औरतों के पीछे-पीछे चलते<br>उनके गुन गाते<br>बतियाते उनके बारे में।<br>
बूढ़े परिमलेंदु की माने तो<br>वे औरते जीवन भर नहीं गईं कहीं ठाकुर<br>को छोड़ कर<br>ठाकुर ही उन औरतों का जीवन थे<br>और वे औरतें ही ठाकुर के चिथड़े मन की<br>सीवन थीं।<br><br>
जब नहीं रहे टैगोर<br>तो महीनों वे चारों ठाकुर की खोज में<br>घूमती रहीं बीरभूम के खेतों में<br>रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि<br>आ सकता है अंधा गुरु<br>पर न आए ठाकुर<br>और वे अंधी औरतें पहुँच गईं<br>पता नहीं कब<br>सोना गाछी की गलियों में,<br><br>
उन्हें तो यह भी पता नहीं चल पाया<br>कि उनका ठाकुर कब कहाँ<br>खो गया<br>कहाँ सो गया उनका सहचर<br>कल सुबह आता हूँ कह कर<br>नहीं आया वह<br>जिसके होने से वे सनाथ थीं।<br><br>
पानी बरसना बंद हुआ जान कर परिमलेंदु बाबू<br>बात अधूरी छोड़ गए<br>मैंने शलभ श्रीराम सिंह से पूछा तो वे<br>रोने लगे<br>कहा सारी बात सच है<br>पर हुआ था यह सब<br>राम कृष्ण परम हंस के साथ,<br>वे चारों अंधी नहीं थीं<br>वहाँ के किसी जमींदार ने फोड़ दीं थीं<br>उनकी आँखें काट लिए थे हाथ<br>खेतों की रखवाली ठीक से ना करने पर।<br>अंधी होने के बाद वे<br>हरदम रहीं बेलूर मठ में<br>परम हंस के साथ।<br>उसके बाद परम हंस ही थे<br>उनकी आँखें और हाथ।<br/poem>