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Kavita Kosh से
लगते प्रबल थपेडेथपेडे़, धुँधले तट का
था कुछ पता नहीं,
स्वयं चमत्कृत होती थीं।
ज्यों विराट बाडवबाड़व-ज्वालायें
खंड-खंड हो रोती थीं।
जलचर विकल निकलते उतराते,
हुआ विलोडित विलोड़ित गृह,
तब प्राणी कौन ! कहाँ ! कब सुख पाते?
उस विराट आलोडन आलोड़न में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लगते,
आह सर्ग के प्रथम अंक का
अधम-पात्र मय सा विष्कंभ।विष्कंभ!"
"ओ जीवन की मरू-मरिचिका,
कायरता के अलस विषाद !
अरे पुरातन अमृत अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद। अवसाद!
अंधकार के अट्टाहसअट्टहास-सी
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखडी उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि
वाष्प बना उडता उड़ता जाता था
या वह भीषण जल-संघात,
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