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|रचनाकार=ग़ालिब|संग्रह= दीवाने-ग़ालिब / ग़ालिब
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>शिकवे के नाम से बेमेहर <ref>कठोर</ref> ख़फ़ा होता है ये भी मत कह, कि जो कहिये , तो गिला होता है
पुर <ref>भरा हुआ</ref> हूँ मैं शिकवा से यूँ, राग से जैसे बाजा इक ज़रा छेड़िये , फिर देखिये क्या होता है
गो समझता नहीं पर हुस्ने-तलाफ़ी<ref>क्षति-पू्र्ति का सुँदर ढंग</ref> देखो !शिकवा-ए-ज़ौर<ref>अत्याचार की शिकायत</ref> से सरगर्म-ए-जफ़ा <ref>जुल्म करने को अधीर</ref> होता है
इश्क़ की राह में है, चर्ख़-ए-मकौकब<ref>तारों भरा आसमान</ref> की वो चाल
सुस्त-रौ <ref>धीमी चाल</ref> जैसे कोई आबला-पा <ref>छालों भरे पाँव</ref> होता है
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद<ref>ज़िल्म ज़ुल्म के तीर के निशाने के लिए अर्पित</ref> कि हम आप उठा लाते हैं गर तीर ख़ता <ref>निशाने से चूका हुआ</ref> होता है
ख़ूद <ref>बेहतर</ref> था, पहले से होते जो हम अपने बदख़्वाह <ref>बुरा चाहने वाला</ref>कि भला चाहते हैं , और बुरा होता है
नाला <ref>विलाप</ref> जाता था, परे अ़र्श से मेरा, और अब लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है  ख़ामा<ref>कलम</ref> मेरा, कि वह है बारबुद-ए-बज़्म-ए-सुख़न<ref>शायरी की महफिल का बारबुद (बारबुद ईरान के दरबार का एक मशहूर संगीतज्ञ था)</ref>शाह की मदह<ref>सम्मान,तारीफ़</ref> में यूं नग़्मा-सरा<ref>धुन बनाना</ref> होता है ऐ शहनशाह-ए-कवाकिब सिपह-ओ-मिहर-`अलम<ref>ऐ बादशाह जब तारामंडल सी तेरी सेना हो और सूरज सा तेरा झंडा</ref>तेरे इकराम<ref>दयालुता</ref> का हक़ किस से अदा होता है सात इक़्लीम<ref>महादेश</ref> का हासिल<ref>कुल जोड़, शुद्द-संपत्ति</ref> जो फ़राहम<ref>इकट्ठा करना</ref> कीजेतो वह लश्कर<ref>सेना</ref> का तेरे, नाल-बहा<ref>घोड़े के खुर में लगने वाला नाल का ख़र्चा</ref> होता है हर महीने में जो यह बदर<ref>पूरा चाँद</ref> से होता है हिलाल<ref>अर्द्धचाँद, दूज का चाँद</ref>आस्तां<ref>दहलीज़</ref> पर तेरे यह नासिया-सा<ref>प्रार्थना में सिर झुकाना</ref> होता है मैं जो गुस्ताख़ हूं आईना-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी<ref>ग़ज़ल सुनाने का सलीका</ref> मेंयह भी तेरा ही करम ज़ौक़-फ़िज़ा<ref>स्वाद-बढ़ाने वाली उदारता</ref> होता है रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई<ref>कड़वे सुर में गाना</ref> से मु`आफ़आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा<ref>ज्यादा तेज</ref> होता है</poem>
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