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मनु के हृदय में था लेश।
कर पकड उन्मुक्त से
हो लगे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
मधुरिमामय साज
वही छवि हाँ वही जैसे
किंतु क्या यह भूल?
रही विस्मृति-सिंधु में स्मृति-
नाव विकल अकूल
जन्म संगिनी एक थी
जो कामबाला नाम-
मधुर श्रद्धा था,
हमारे प्राण को विश्राम-
सतत मिलता था उसी से,
अरे जिसको फूल
दिया करते अर्ध में
मकरंद सुषमा-मूल
प्रलय मे भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोद
रहा मिलने को बचा,
सूने जगत की गोद
ज्योत्स्ना सी निकल आई
पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खडा
नभ में लिये तारक हार
कुटिल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल-
नीलिमा से नयन की
रचती तमिसा माल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की,
फेंकती यह दृष्टि,
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हँसी की चल-सृष्टि।
हुई केंद्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्त्ति,
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्ति
दिवाकर दिन या परिश्रम
का विकल विश्रांत
मैं पुरूष, शिशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
चंद्र की विश्राम राका
बालिका-सी कांत,
विजयनी सी दीखती
तुम माधुरी-सी शांत।
पददलित सी थकी
व्रज्या ज्यों सा आक्रांत,
शस्य-श्यामल भूमि में
होती समाप्त अशांत।
आह वैसा ही हृदय का
बन रहा परिणाम,
पा रहा आज देकर
तुम्हीं से निज काम।
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