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|रचनाकार=नवीन दामोदर जोशी ’नवेंदु’ 'देवांशु'
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<poem>
घर के बगीचों से
सरयू-गोमती के घाटों से
शिखरों के भण्डारों से
समतल, ऊंचे-नींचे रास्तों से
दुनियां के दूर देशों से
यहाँ से, वहाँ से, नींचे से, ऊपर से
जाने कहाँ, कहाँ-कहाँ गड्ढों से
थोड़ा-थोड़ा कर अंजुली से उठा कर लाए गए
किसी दिन, किसी समय, किसी पल
बिना सींग कान के इन पत्थरों को
 
साधारण रेलों जैसे
स्वस्ति श्री सर्वोपमा योग्य श्री-श्री......
श्रीमान्! एक नज़र देख दीजिएगा
ऊपर उठा दीजिएगा, इधर उधर सम्भाल दीजिएगा
अपने देश के पत्थर भी चुपड़े!
 
थोड़ा भी किसी काम के होंगे
अपने घर-बगीचे की दीवारों
बुनियाद में सात हाथ नींचे ही डाल दीजिएगा
या छत में पत्थरों के साथ
पानी को काटने का विशेश प्रबंध करने वाला उपकरण बना
घर के शिखर में चिन लीजिऐगा।
 
अपने मन के आंगन में बिछा लीजिएगा
या इन्हें खण्ड-खण्ड कर रेत बना लेप-प्लास्टर कर लीजिएगा
अधिक जैसे लगें तो एक ही जगह इकट्ठे कर
कहीं नींचे-ऊपर खिसका दीजिऐगा, गड्ढे में डाल दीजिऐगा
पत्तियों की तरह आकाश में उड़ा दीजिएगा
कोई माँगेगा तो अच्छा ही हुआ, दे दीजिऐगा
कोई चुराए तो अच्छा ही हुआ, देखते रहिऐगा।
 
या छोटे बच्चों के हाथ में थमा दीजिऐगा
कि बेटा! जा, बना अपना खेल-घर
किन्तु बेकार समझ, या गुस्से से
पटक न देना, पथराव न करना
श्रीमान! फेंक न देना इन कंकणों को।
 
वरना! पत्थर की चट्टान का मन टूट जाऐगा, पिघल जाऐगा
पुराने घाव हरे हो जाऐंगे
वक़्त पीछे छूट जाएगा
फिर! कोई हमें लूट ले जाऐगा।
 
 
'''मूल कुमाउनीं पाठ'''
 
घराक बुज बाड़न बटि
सरजू-गोमतिक रिवाड़न बटि
शिखराक् भण्डारन बटि
सैण-शोर गेवाड़न बटि
दुनियांक दार-दाड़न बटि
 
यथ बटि, उथ बटि, तलि बटि, मलि बटि
जांणि कथ कां-कां खाड़न बटि
मणीं-मणि कै आंचुइल टिपि बेर ल्याईं
कै दिनै, कै घड़ि, क्वे पल
बिना सींग काना यै ढुंगन कैं
 
ख्योर-म्योर जस! र् योल -म्योल जस!
स्वस्ति श्री सर्वोपमा योग्य श्री-श्री......
श्रीमान्! एक नज़र चै दिया
मांथी उचै दिया, वलि-पलि टांचि दिया
आपंण मुलुकाक् ढुंग लै चुपाड़!
 
मणीं लै क्वे काम-नामाक हला
आपंणि कुड़ि-बाड़िक भिड़ दीवाराक्
बुनियैद में सात हात ताव खिति दिया
या पाख-पाथरों दगाड़ पणकाट बनै बेर लै
धुरि-दन्यारि में चिणिं ल्हिया।
 
आपंण मनाक् पटांगण कैं पटै ल्हिया
या इनौर चुर-चुर करि बेर लेप-पलस्तर करि ल्हिया
बकाई जस चिताला! चौंर्यै दिया एक ठौर
कांई इचाल-कनाल रड़ै दिया, खाड़ खड़ै दिया
पात-पतेल जस अगास उड़ै दिया
क्वे मांगल तो भल भै, दी दिया
क्वे चोरल तो भल भै, चै रया।
 
या नान नानतिनां हात थमै दिया
इजा! पोथी! जा, बणा आपणि खेल-कुड़ि
ह्याल समझि, या के रीसा मारी
पत्येड़ि झन दिया, घन्तर झन खितिया
श्रीमान! खेड़ि झन दिया कणिकन कैं।
 
नतरि! पखांणक् मन टुटि जाल, बिलै जाल
घौ पुराण दुखि जाल
बखत पछिल छुटि जाल
फिर! क्वे हमुं कैं लुटि जाल।
</poem>
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