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10:58, 25 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
|संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
नेम ब्रत संजम कै आसन अखंड लाइ
::साँसनि कौं घूँटिहैं जहाँ लौं गिलि जाइगौ ।
कहै रतनाकर धरैंगी मृगछाला अरु
::धूरि हूँ दरैंगी जऊ अंग छिलि जाइगौ ॥
पांच आंच हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि
रावरौ हू कठिन करेजौ हिलि जाइगौ ।
सहिहैं तिहारे कहैं सांसति सबै पै बस
एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ ॥61॥
</poem>