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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
धरि राखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ
::गोपिन कौं आवत न भावत भड़ंग है ।
कहै रतनाकर करत टांय-टांय वृथा
::सुनत न कौ इहाँ यह मुहचंग है ॥
और हूँ उपाय केते सहज सुढंग ऊधौ
::साँस रोकिबै कौं कहा जोग ही कुढंग है ।
कुटिल कटारी है अटारी है उतंग अति
::जमुना-तरंग है, तिहारौ सतसंग है ॥67॥
</poem>
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