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अपनी मीठी रसना से वह
 
बोलेगा ऐसे मधुर बोल,
 
मेरी पीडा पर छिडकेगी जो
 
कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
 
 
मेरी आँखों का सब पानी
 
तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध
 
उन निर्विकार नयनों में जब
 
देखूँगी अपना चित्र मुग्ध"
 
 
"तुम फूल उठोगी लतिका सी
 
कंपित कर सुख सौरभ तरंग,
 
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
 
वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।
 
 
यह जलन नहीं सह सकता मैं
 
चाहिये मुझे मेरा ममत्व,
 
इस पंचभूत की रचना में मैं
 
रमण करूँ बन एक तत्त्व।
 
 
यह द्वैत, अरे यह विधातो है
 
प्रेम बाँटने का प्रकार
 
भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
 
मैं लोटा लूँगा निज विचार।
 
 
तुम दानशीलता से अपनी बन
 
सजल जलद बितरो न विदु।
 
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
 
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
 
 
भूले कभी निहारोगी कर
 
आकर्षणमय हास एक,
 
मायाविनि मैं न उसे लूँगा
 
वरदान समझ कर-जानु टेक
 
 
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
 
तुम बोझ डालने में समर्थ-
 
अपने को मत समझो श्रद्धे
 
होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।
 
 
तुम अपने सुख से सुखी रहो
 
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,
 
' मन की परवशता महा-दुख'
 
मैं यही जपूँगा महामंत्र
 
 
लो चला आज मैं छोड यहीं
 
संचित संवेदन-भार-पुंज,
 
मुझको काँटे ही मिलें धन्य
 
हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।"
 
 
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु
 
चले गये, था शून्य प्रांत,
 
"रूक जा, सुन ले ओ निर्मोही"
 
वह कहती रही अधीर श्रांत।
 
''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''
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