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उखड़े हुए लोग / डी० एच० लारेंस

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<poem>
अकेलेपन से जो लोग दुखी हैं,
वृत्तियाँ उनकी,
निश्चय ही, बहिर्मुखी हैं ।

सृष्टि से बाँधने वाला तार
उनका टूट गया है;
असली आनन्द का आधार
छूट गया है ।

उदगम से छूटी हुई नदियों में ज्वार कहाँ ?
जड़-कटे पौधौं में जीवन की धार कहाँ ?

तब भी, जड़-कटे पौधों के ही समान
रोते हैं ये उखड़े हुए लोग बेचारे;
जीना चाहते हैं भीड़-भभ्भड़ के सहारे ।

भीड़, मगर, टूटा हुआ तार
और तोड़ती है
कटे हुए पौधों की
जड़ नहीं जोड़ती है ।

बाहरी तरंगो पर जितना ही फूलते हैं,
हम अपने को उतना ही और भूलते हैं ।

जड़ जमाना चाहते हो
तो एकान्त में जाओ ;
अगम-अज्ञात में अपनी सोरें फैलाओ ।
अकेलापन है राह
अपने आपको पाने की ;
जहाँ से तुम निकल चुके हो,
उस घर में वापस जाने की ।

'''अंग्रेजी से अनुवाद : रामधारी सिंह 'दिनकर''''
</poem>
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