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Kavita Kosh से
हो छिटक रही चिंगारी;<br><br>
::आगामी विस्फोट काल के<br>::मुख पर दमक रहा हो;<br>::इंगित में अंगार विवश<br>::भावों के चमक रहा हो;<br><br>
पढ़कर भी संकेत सजग हों<br>
आहुतियाँ बारी-बारी;<br><br>
::कभी नये शोषण से, कभी<br>::उपेक्षा, कभी दमन से,<br>::अपमानों से कभी, कभी<br>::शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।<br><br>
दबे हुए आवेग वहाँ यदि<br>
अन्यायी पर टूटें,<br><br>
::कहो कौन दायी होगा<br>::उस दारुण जगद्दहन का<br>::अहंकार या घृणा? कौन<br>::दोषी होगा उस रण का ?<br><br>
तुम विषण्ण हो समझ<br>
बरसी थी अंबर से?<br><br>
::अथवा अकस्मात मिट्टि से<br>::फूटी थी यह ज्वाला ?<br>::या मंत्रों के बल से जनमी<br>::थी यह शिखा कराला ?<br><br>
कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या<br>
हृदय-हृदय में बलने ?<br><br>
::शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का<br>::जब वर्जन करती है,<br>::तभी जान लो, किसी समर का<br>::वह सर्जन करती है।<br><br>
शान्ति नहीं तब तक; जब तक<br>
नहीं किसी को कम हो।<br><br>
::ऐसी शान्ति राज्य करती है<br>::तन पर नहीं हृदय पर,<br>::नर के ऊँचे विश्वासों पर,<br>::श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।<br><br>
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