भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भज गोविन्दम / मृदुल कीर्ति

9,083 bytes added, 14:53, 26 अप्रैल 2010
'''भज गोविन्दम'''
'''आदि गुरु श्री शंकराचार्य विरचित'''
 
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते ।
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥ १ ॥
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
कलवित काल करे जेहि काले, नियम व्याकरण, क्या करते?
भज गोविन्दम भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१॥
 
मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम् ।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ २ ॥
माया जोड़े, काया तोड़े, ढेर लगा कब सुख मिलते,
जो भी करम किये थे पहले, उनके ही फल अब फलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥२॥
 
नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्वा मागामोहावेशम् ।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥ ३ ॥
नारी तन, मोहित मन मोहा, अंदर माँस नहीं दिखते,
बार-बार सोचो मन मूरख, हाड़ माँस पर क्यूँ बिकते.
भज गोविन्दम , भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥३॥
 
नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥ ४ ॥
कमल पात, जल बिंदु न रुकते, अस्थिर, दूजे पल बहते,
अहम् ग्रसित अस्थिर संसारा , रोग, शोक, दुःख संग रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥४॥
 
यावद्वित्तोपार्जन सक्तः स्तावन्निज परिवारो रक्तः ।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥ ५ ॥
धन अर्जन की क्षमता जबतक, घर परिवार सलग रहते,
जर्जर देह कोई ना पूछे, ना कोई बात, अलग रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥५॥
 
यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥ ६ ॥
जब तक प्राण देह में रहते, घर परिवार लिपट रहते,
प्राण वायु के गमन तदन्तर, वे कब कहाँ निकट रहते?
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥६॥
 
बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥ ७ ॥
बाल काल बहु खेल खिलौने, युवा काल नारी रमते,
वृद्ध, रोग, दुःख, क्लेश अनेका, परम ब्रह्म को ना भजते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥७॥
 
काते कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।
कस्य त्वं कः कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥ ८ ॥
को सुत, कन्त, भार्या, बन्धु, झूठे सब नाते छलते,
जगत रीत अद्भुत, तू किसका, कौन, कहाँ, आये, चलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥८॥
 
सत्सङ्गत्वे निस्स्ङ्गत्वं निस्सङ्गत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥ ९ ॥
सत-संगति से निरासक्त मन, मोह चक्र में ना फँसते,
निर्मोही मन जीवन मुक्ति, पथ निर्बाध चलें हँसते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥९॥
 
वयसिगते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
क्षीणेवित्ते कः परिवारः ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥ १० ॥
काम गया यौवन के संगा, नीर सूख नद ना कहते.
धन विहीन परिवार न संगा, जानो जग इसको कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१०॥
 
मा कुरु धन जन यौवन गर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम् ।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥ ११ ॥
धन, यौवन, मद सब निःसारा, छिनत ना काल निमिष लगते,
मायामय अखिलं संसारा, ब्रह्म ज्ञान परमं लभते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥११॥
 
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥ १२ ॥
प्रातः सायं, दिवस और रैना, शिशिर, बसन्ती ऋतु रुचते,
काल प्रभंजन के तिनके , पर वेग चाह के ना रुकते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१२॥
 
द्वादशमञ्जरिकाभिरशेषः कथितो वैयाकरणस्यैषः ।
उपदेशो भूद्विद्यानिपुणैः श्रीमच्छन्करभगवच्छरणैः ॥ १२अ ॥
'''यह बारह काव्य सूत्र ही विशेष रूप से प्रचलित हैं और गायन में बहुत ही प्रसिद्ध हैं।'''
'''शेष काव्य सूत्र'''
 
काते कान्ता धन गतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता ।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ १३ ॥
धन पत्नी की चिंता त्यागो, नियति नियंता ही करते,
तीन लोक सत्संग सहायक, जिनसे भव सागर तरते.
भज गोविन्दम , भज गोविन्दम गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१३॥
 
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि चन पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥ १४ ॥
मुंडन, जटा, केश के लुंचन, भगवा विविध विधि धरते,
उदर निमितं करम पसारा, मूढ़ विलोकें, ना जगते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१४॥
 
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जतं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥ १५ ॥
शिथिल अंग, सर केश विहीना, दंतहीन अब ना सजते,
वृद्ध तदपि आबद्ध विमोहा, सार हीन जग ना तजते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१५॥
 
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥ १६ ॥
उदर हेतु भिक्षान्न, तरु तल, सिकुड़ -सिकुड़ बैठा करते.
शीत- ताप सह अपितु, भावना के इंगित नाचा करते.
भज गोविन्दम, भजगोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१६॥
 
कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥ १७ ॥
दान, पुण्य, व्रत, विविध प्रकारा, गंगा सागर तक चलते.
पर बिन ज्ञान कदापि न मुक्ति, जनम शतं मिटते मिलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१७॥
 
सुर मंदिर तरु मूल निवासः शय्या भूतल मजिनं वासः ।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥ १८ ॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासा, शैय्या भूतल में करते,
सकल परिग्रह, भोग, त्याग, पर भाव विरागी से तरते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१८॥
 
योगरतो वाभोगरतोवा सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः ।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥ १९ ॥
योग रतो या भोग रतो या राग विरागों में रहते,
ब्रह्म रमा चित नन्दति-नन्दति, सतत ब्रह्म सुख में बहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१९॥
 
भगवद् गीता किञ्चिदधीता गङ्गा जललव कणिकापीता ।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥ २० ॥
भगवद गीता, किंचित अध्ययन, गंगा जल सेवन करते,
कृष्ण, वंदना वंदन कर्ता, कभी न यम से भी डरते.
भज गोविन्दम, भजगोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२०॥
 
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥
पुनरपि जनम, मरण पुनि जठरे, शयनं के क्रम दुःख सहते,
यह संसार जलधि दुस्तारा, श्री कृष्णं शरणम् महते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२१॥
 
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः ।
योगी योगनियोजित चित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव ॥ २२ ॥
लंबा चोगा पंथ बुहारे , क्या गुण-दोष शमन करते,
योगी योग नियोजित चित्तो, बालक सम ब्रह्मम रमते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२२॥
 
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥ २३ ॥
को तुम, को हम , कहाँ से आये, को पितु- मातु न कह सकते?
जगत असारा, स्वप्न पसारा, क्या स्वप्निल जग रह सकते?
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥२३॥
 
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥ २४ ॥
अणु-अणु कण-कण, तुझमें- मुझमें, विष्णु ब्रह्म मय ही रमते,
व्यर्थ, क्रोध, दुर्भाव, विकारा, भव शुभ चितः सम समते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२४॥
 
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥ २५ ॥
शत्रु, मित्र, सुत, बन्धु, बान्धवा, द्वेष दुलार परे करते,
अणु-कण कृष्णा! कृष्णा! कृष्णा! भेद विभावों से तरते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२५॥
 
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम् ।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥ २६ ॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, विमोहा, त्याग स्वरूपं में बसते,
आत्म ज्ञान बिन जीव निगोधा, नरक निगोधा में धंसते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२६॥
 
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥ २७ ॥
गेयं गीता , नाम सहस्त्रं , ध्येयं श्री श्री पति महते,
सज्जन संगा, चित्त प्रसन्ना, दीनन को धन दो कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२७॥
 
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥ २८ ॥
भोग पिपासा रत जिन लोगा, रोग शोक दारुण सहते,
नश्वर जगत तथापि मूढ़ा, सतत पाप के पथ गहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२८॥
 
अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्तिततः सुखलेशः सत्यम् ।
पुत्रादपि धन भाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिआ रीतिः ॥ २९ ॥
धन अम्बार न सुख का सारा , लेश न सुख इनमें बहते,
निज सुत से अपि होत भयातुर, धन की गति ऐसी कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२९॥
 
प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम् ।
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥ ३० ॥
प्राणायामं, प्रत्याहारम, नित्य निरत रत सत महते,
भज गोविन्दम, शांत समाधि, समाधिस्थ मन चित रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥३०॥
 
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भकतः संसारादचिराद्भव मुक्तः ।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥ ३१ ॥
गुरु के चरण कमल नत वंदन, जिससे भव सागर तरते,