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समेटना चाहा है
बॉंटना बाँटना चाहा हैखुद ख़ुद को
हरे-पीले पत्‍तों में
दूर-सुदूर देशों तक
हमारे धागे
पहुंचते पहुँचते हैं स्‍पंदित होंठों तक
आक्रोश भरे दिन-रात
आ बिखरते हैं
के दो कमरों में
हमारे आस्‍मान आसमान मेंएक चॉंद चाँद उगता हैजिसे बॉंट बाँट देते हैं हम
लोगों में
कभी किसी तारे को
अपनी ऑंखों आँखों में दबोच
उतार लाते हैं सीने तक
फिर छोड़ देते हैं
डरते हैं
खो न जायेंजाएँ
तारे
कमरे तो दो ही हैं
कहॉं छिपायेंकहाँ छिपाएँ?
</poem>
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