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माँ / एकांत श्रीवास्तव

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव }}{{KKCatKavita}}<Poem>: एक :<br />शताब्दियों से<br />उसके हाथ में सुई और धागा है<br />और हमारी फटी कमीज<br /><br />मॉं माँ फटी कमीज पर पैबन्‍द लगाती है<br />और पैबन्‍द पर काढ़ती है<br />भविष्‍य का फूल.<br /><br /><br />: दो :<br />वह रात भर <br />कंदील की तरह जलती है<br />इसके बाद भोर के<br />तारे-सी झिलमिलाती है<br /><br />मॉं माँ एक नदी का नाम है<br />जो जीवन के कछारों को<br />उर्वर बनाती है.<br /><br /><br />: तीन :<br />वह धान की एक बाली है<br />धूप हवा में पकाती अपने भीतर<br />दूध-सा कच्‍चा हमारा जीवन<br /><br />वह जानती है कि हमीं हैं<br />कल खलिहान में<br />किसान के सूप सूपे से झरने वाले मोती.<br /><br /><br />: चार :<br />सम्‍पूर्ण धरती है मॉं<br />माँ हमारी सॉंसों साँसों की धुरी पर घूमती<br />जहॉं जहाँ सबसे पहले फूटे जीवन के अंखुए<br /><br />अंकुर वह हमारे माथे पर<br />मोर पंख की तरह<br />बॉंधती बांधती है वसन्‍त<br />हमारे घावों पर रखती है<br />रूई के फाहों-से बादल<br />और हमारे होंठों तक<br />अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र<br /><br />आकाश हैं हम<br />उसके दोनों हाथों में उठे.<br /> <br /poem>
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