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बहुत कुछ / नन्दल हितैषी

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’जो बोलना चाहे’
लोग आते/ देखते न अघाते
और बस देखते ही रह जाते..... और तभीनिर्णायक मण्डल का ऐलानएक कमी की ओरइशारा ...’गाँधी की प्रतिमा को संगतराश नेसलीके से नहीं सँवारा हैक्योंकि महात्मा के सीने परगोलियों के निशाननहीं उभारा है’
हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपनी विरासत से
अपनी परम्परा और इस
नई लगानी से
मसलन
भुजाओं में फड़कती मछलियाँ
.... और पत्थरों का
पिघलता स्वरूप.
हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने बाप - दादों से.
मसलन ’मठन्ने’ की पकड़
उसकी चोट
छेनियों की बारीकी
और उसका उतार चढ़ाव.
बहुत कुछ
हाँ! बहुत कुछ.
</poem>
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