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मायारानी के केशभार
 
जीवन-निशीथ के अंधकार
 
तू घूम रहा अभिलाषा के
 
नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार
 
जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक
 
 
चिनगारी-सी उठती पुकार
 
यौवन मधुवन की कालिंदी
 
बह रही चूम कर सब दिंगत
 
मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें
 
 
बस दौड़ लगाती हैं अनंत
 
कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन
 
हँसती तुझमें सुंदर छलना
 
धूमिल रेखाओं से सजीव
 
 
चंचल चित्रों की नव-कलना
 
इस चिर प्रवास श्यामल पथ में
 
छायी पिक प्राणों की पुकार-
 
बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार
 
 
उजड़ा सूना नगर-प्रांत
 
जिसमें सुख-दुख की परिभाषा
 
विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत
 
निज विकृत वक्र रेखाओं से,
 
 
प्राणी का भाग्य बनी अशांत
 
कितनी सुखमय स्मृतियाँ,
 
अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण
 
इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि
 
 
दब रही अभी बन पात्र जीर्ण
 
आती दुलार को हिचकी-सी
 
सूने कोनों में कसक भरी।
 
इस सूखर तरु पर मनोवृति
 
 
आकाश-बेलि सी रही हरी
 
जीवन-समाधि के खँडहर पर जो
 
जल उठते दीपक अशांत
 
फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।
 
 
यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत
 
श्रद्धा का सुख साधन निवास
 
जब छोड़ चले आये प्रशांत
 
पथ-पथ में भटक अटकते वे
 
 
आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत
 
बहती सरस्वती वेग भरी
 
निस्तब्ध हो रही निशा श्याम
 
नक्षत्र निरखते निर्मिमेष
 
 
वसुधा को वह गति विकल वाम
 
वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण
 
उपकूल आज कितना सूना
 
देवेश इंद्र की विजय-कथा की
 
 
स्मृति देती थी दुख दूना
 
वह पावन सारस्वत प्रदेश
 
दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत
 
फैला था चारों ओर ध्वांत।
 
 
 
 
 
''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''
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