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"जीवन का लेकर नव विचार
 
जब चला द्वंद्व था असुरों में
 
प्राणों की पूजा का प्रचार
 
उस ओर आत्मविश्वास-निरत
 
 
सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-
 
मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-
 
मंगल उपासना में विभोर
 
उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,
 
 
किसकी खोजूँ फिर शरण और
 
आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत
 
जीवन-विकास वैचित्र्य भरा
 
अपना नव-नव निर्माण किये
 
 
रखता यह विश्व सदैव हरा,
 
प्राणों के सुख-साधन में ही,
 
संलग्न असुर करते सुधार
 
नियमों में बँधते दुर्निवार
 
 
था एक पूजता देह दीन
 
दूसरा अपूर्ण अहंता में
 
अपने को समझ रहा प्रवीण
 
दोनों का हठ था दुर्निवार,
 
 
 
दोनों ही थे विश्वास-हीन-
 
फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से
 
वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध
 
उनका संघर्ष चला अशांत
 
 
वे भाव रहे अब तक विरुद्ध
 
मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह
 
स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता
 
हो प्रलय-भीत तन रक्षा में
 
 
पूजन करने की व्याकुलता
 
वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो
 
मुझको बना रहा अधिक दीन-
 
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"
 
 
मनु तुम श्रद्धाको गये भूल
 
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को
 
उडा़ दिया था समझ तूल
 
तुमने तो समझा असत् विश्व
 
 
जीवन धागे में रहा झूल
 
जो क्षण बीतें सुख-साधन में
 
उनको ही वास्तव लिया मान
 
वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,
 
 
यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान
 
तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में
 
कुछ सत्ता है नारी की
 
समरसता है संबंध बनी
 
 
अधिकार और अधिकारी की।"
 
जब गूँजी यह वाणी तीखी
 
कंपित करती अंबर अकूल
 
मनु को जैसे चुभ गया शूल।
 
 
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