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बैठें हैं कबूतर
ओ दुष्यन्त!
यहां हैं तुम्हारे कबूतरचुगते चावल के दानेपीते कुण्ड का जल यह हाथ मेंकमण्डल लिए खड़ा हैकिसी भी वक्तजंगल में गुम होने को तैयार बरसों से कबीर के इंतजार में हैएक उदास चबूतराकि वे लौट आयेंगे किसी भी वक्तऔर छील देंगेएक उबले आलू की तरहशहर का चेहरा जब फैल जाती है रात की चादरनींद के धुएं में डूब जाते हैं पेड़फूल और पहाड़इसकी गहरी घाटियों मेंगूंजती है सोन की पुकारनर्मदा ओ.....नर्मदा ओ............नर्मदा ओ................ और पहाड़ों के सीने मेंढुलकते हैंनर्मदा के आंसू.
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