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कॉमन मॅन

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तुम ने उनको राजा मान लिया,वे विधायक,सांसद बन गए,
तुम ने क़ानुन के आगे सिर झुकाया,संसद सार्वभौम हो गई।
 
 
तुम ने दफ्तर के चक्कर काट-काट कर लाल फीताशाही से फाँसी लगवा ली,
तुम ने सपनों को पुकारा,उनके एजेंडा ने जन्म लिया
वे कानून बनाने लगे,तुम कोल्हु के बैल बन गए
वे नोटों पर नचवाने लगे,तुम उन के प्रचार में बंदर बन गए।
 
 
बम-विस्फोट के ठीकरों में तुम
निर्वासन की भीड में तुम
हर्जाना पाने के लिए चक्कर काटने वालों में तुम
फुटपाथ पर रह कर ‘मेरा भारत महान’ घोषणा देने वालों में तुम
 
 
तुम नजर आते हो हमेशा राशन की कतार से मतदान की कतार तक
कभी कर अदा करते हुए,कभी लाल फीताशाही के चर्खे में घुटते हुए
झोपडपट्टी के नरक से दूर जंगल में रहते हुए
तुमने अपने दिल का आक्रोश,बगावत किस खाई में फेंक दी है?
 
 
”सिसीफस” के समान बदन पर पत्थर उठा कर
चुप चाप तुम्हारा पहाड की चोटी की ओर जाना बार-बार
वे रावण बनकर तुम्हारा हरण करके
तुम्हें स्वप्न कांचन मृग दिखाते रहे।
 
 
तुम्हारे साधारण रहने पर ही असाधारण लोकतंत्र का सिंहासन आबाद है।
अपनी सहनशीलता को अब मिटा दो।
यह सोच कर मैं पुतला बन रहा हूँ,
हे कॉमन मैन !
 
 
(मूल मराठी कविता- हेरंब कुलकर्णी
हिंदी अनुवाद- विजय प्रभाकर कांबले) साभार-समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी के अंक ११० (नवबंर-दिसंबर २००३) में प्रकाशित।
हमारे मित्र हेरंब जी ने सिंबॉयसिस पुणे स्थित कैंपस में स्थापित भारत का प्रथम कॉमन मैन के पुतले को देख कर यह कविता बनायी।
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