भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<Poem>
दीवारें सिर्फ छप्पर साधने के लिए थीं
जगह-जगह दरवाजे दरवाज़े हमारे
खुले हुए थे
सुनने और कहने के लिए जो शब्द थे
उनमें अजन्में शब्दों की बड़ी गूंज गूँज थीदूर-दूर की आवाजेंआवाज़ें
हमारे पास प्रतिध्वनि की तरह आती थीं
हम खोए हुए अक्सर अपने आर-पार आते-जाते थे.थे।
हमारी मृत्यु होती थी
जन्मों से भरे इस संसार में हम
बार-बार जन्म लेते थे.थे।
हम खुले में लेट जाते थे तारे देखते थे
धूल पर उंगलियों उँगलियों से लकीरें खींचते थेनाम लिखते थे.थे।
धरती जहॉं जहाँ से पेड़ बनकर आना चाहती थीवहां वहाँ से हट जाते थेऔर चिडियों चिड़ियों के भीतर से गाते थे.थे।
अब एक पुरानी बस्ती
हम एक गली में हैं लावारिस
चील कौवे धसकती मुंडेरों मुँडेरों पर बैठे हैंगर्दनें टेढ़ी किए.किए।
एक टूटी हुई खिड़की
हवा में झूल रही है
तारों की अवाक दूरियॉं बुझने-बुझने को हैं.हैं।</poem>