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{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल'
}}[[Category:गज़ल]]{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>
देह के रहते ज़माने की कई बीमारियाँ भी हैं
 
आदमी होने की लेकिन हममें कुछ खुद्दारियाँ भी हैं।
 
 
कोई भी खुद्दार अपनी रूह का सौदा नहीं करता
 
और करता है तो इसमें उसकी कुछ लाचारियाँ भी हैं।
 
 
चाहतें जीने की छोड़ी जायेंगी हरगिज नहीं हमसे
 
जिन्दगी में यूँ कि ढेरों ढेर-सी दुश्वारियाँ भी हैं।
  इस शहर से जिन्दगी ज़िदगी को छीन सकता है नहीं कोई 
मौत है इसमें अगर तो जन्म की तैयारियाँ भी हैं।
 
 
कोई झोंका फिर अलावों में तपिश भर जाएगा भाई
 ाख राख तो है राख के भीतर मगर चिन्गारियाँ भी हैं।</poem>
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