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|रचनाकार=रमेश प्रजापति
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अरी लकड़ी!
बनकर सहारा दिखाना सही रास्ता
भटके अंधे बूढ़े को
बीहड़ लोगों के जंगल में,
मूसल बनकर धान कूटना
उछल-उछलकर माँ के हाथों में
बनकर टेक लगे रहना
भोली के छप्पर में
मत बनकर आना लट्ठ
मुच्छड़ पहलवान के हाथों में
अरी लकड़ी!
कुम्हार का थापा बनकर
मुझे ढालना ऐसे साँचे में
जो झेल सकूँ वक़्त के थपेड़ों की मार
मेहड़ा बनकर मत फिरना
मेरे मीठे सपनों की फ़सलों पर
अरी लकड़ी!
काठी बनना,
घोड़ा बनना,
लट्टू बनना,
बच्चों के खेलों की बनना कठपुतली
बनकर नाव पार उतारना हमें
दुनिया के उफनते समुद्र से
अरी लकड़ी!
मत बनना बिगड़ैल हाथी
मत बनना
ज़्ाालिम राजा की कुर्सी।
</poem>