भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
उसने विस्मय से मुझे देखा
बहुत विस्मय उसका सम्मोहित करता है
उसकी आवाज आवाज़ में शब्द नहीं हैंवह आवाज आवाज़ धरती जितनी पुरानी लगती है
उसने अपनी मुट्ठी में मेरे बाल भरे
उन्हें खूब ख़ूब खींचा
कहीं भी नाखून मारे
हाथ पांव -पाँव फेंके किलकारियां किलकारियाँ भरीं
और रोया
उसके रोने में उकसी मां माँ की आहट है.है।
उसने अपनी मां माँ की गोद में पहुंचकरपहुँचकर
मुझे देखा
वह देखना वह क्या था
कि शब्द नहीं देते साथ
</poem>