सिरहाने के तकिये में जब ओस कमल की खो जाती है<br>
राह भटक कर कोई बदली, बिस्तर की छत पर छाती है<br>
लोरी के सुर खिडकी खिड़की की चौखट के बाहर अटके रहते<br>
और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं<br><br>
तब सपने आवारा होकर अम्बर में उडते उड़ते रहते है<br>
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं<br><br>
राह ढूँढती इक पगडन्डी रह जाती है पथ में खोई<br>
सुधियों की अमराई में जब कोई बौर नहीं आ पाती<br>
बरगद की फ़ुनगी पर बौठी बैठी बुलबुल गीत नहीं जब गाती<br><br>
और हथेली में किस्मत के लेखे जब बनते मिटते हैं<br>
इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता<br>
रिश्तों की कोरी चूनर से जुड जुड़ जाता है कोई नाता<br>
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये<br>
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये<br><br>