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राजा मनखान
काले पर्वत की कच्ची सड़क पर
चलते ही हैं घोड़ा भागेभगाए
ऍड़-पर ऍड़ लगाए
मुतलाशी मनखान
पता नहीं चला
घुड़सवार मनखान को
कि कब उनका घोड़ा
बिना रंग की मिट्टी की सीमा
पार कर गया
देखा मनखIन ने
मुड़कर पीछे
तो कहीं कुछ नहीं था:
....जंगल जैसे लील गया था
लश्कर
कुत्ते
दरबारी
वेश्याएं
सुरा के ढोल
हवाओं संग उड़ता
सरसराता लबादा सहेज
मनखiन
घोड़े से उतारते हैं ...
उनके पाँव तले बिछी है
बिना रंग की मिटटी !
पर अजीब बात है
आज राजा देख नहीं पा रहे
बिना रंग की मिटटी.. ,
जिसकी तलाश में निकले थे वह
उनकी आँखों में तिरते हैं
पश्चिम में घिरते बादल
चक्राकार नाचते आते
धूळ के मीनार
विलाप करती भटकतीं तेज़ हवाएं...
कैसें देखें राजा मनखान
पाँव तले बिछी
बिना रंग की मिट्टी?
राजा के मस्तक में रेंगती है
एक स्लेटी छिपकिली
और, फिर उड़ चलता है
"इच्छाबल" का अश्वारोही
धरती-दर-धरती
अम्बर-दर-अम्बर
रुकता है
राजा मनखान का घोड़ा
एक पुरानी सराए के द्वार पर I
खींचते हुए लगाम
पूछते हैं राजा
उस अनादी सराए की मालकिन - कटी छातियों वाली हब्शिन से :
अरे, सुनो ! सुनो तो !
इधर से कोई लश्कर तो नहीं निकला?
हब्शिन इनकार में सर हिलाती है
मनखान लगाते हैं , घोड़े को एंड ...
एकाएक रास्ते कट जाते हैं
बादल फट जाते हैं
जिधर भी घूमता है राजा का घोड़ा
लपलपाती है आग
तपता है उनका भाल
झुलसते हैं उनके माथे के बाल
बजाती है हब्शिन तालियाँ तीन --
ठुमकती आतीं : दो गौर-वर्णी
विशाल-वक्षI
कमसिन बालाएं
हब्शिन के दाएं-बाएं
थमकर करतीं अभिवादन I
एकाएक मालकिन के हाथों में
प्रकट होते हैं --
दो जाम
जिन्हें उलट देती है वह
विशाल वक्षाओं की छातियों पर
दहकते जिस्मों से फिसल कर