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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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मैं नहीं चाहता चिर -सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख, ; सुख -दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख ! मुख। :सुख-दुख के मधुर मिलन से :यह जीवन हो परिपूरण; :फिर घन में ओझल हो शशि, :फिर शशि से ओझल हो घन ! घन। जग पीड़ित है अति -दुख से , जग पीड़ित रे अति -सुख से, मानव -जग में बँट जाएँ जावेंदुख सुख से औ’ सुख दुख से ! से। :अविरत दुख है उत्पीड़न, :अविरत सुख भी उत्पीड़न, :दुख-सुख की निशा-दिवा में, :सोता-जगता जग-जीवन।
यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !
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