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Kavita Kosh से
पुरातन चश्मे से
और मुझे अपने ही घर के कोने
कराने लगते हैं अजनबीपन का अहसास
एक सवाल की तरह घेरती है मुझे
हवा में फैले गहरे काले धुएं धुएँ की घुटनमौजूद रही है तुम्हारी धडकनों धड़कनों में
जिसने बना दिया है तुम्हें
कहीं ज़्यादा गहरा और शांत
समाज की जकड़बंदी
बहती रही है तुम्हारी सांसों साँसों में
सालों-साल
सामाजिक बंधनों को तो
मैं भी मानती हूँ माँ
हम दोनों के दिल भले ही हों अलग
धड़कते रहे हैं मगर एक साथ
हमारी सांसों साँसों की गरमाहट
रही है हमेशा एक सी
एक ही आवृत्ति के साथ
देखने लगती हैं तुम्हारी निगाहें
और मैं डर जाती हूँ
तुम्हारी पहाड़ -सी आकांक्षाओं के सामने
तुम्हारे अंदर घुमड़ते सवालों को
जब में पढ़ती हूँ
तुम्हारे हिसाब से
ढोती है बच्चों का बोझ
मेरे लिए साथी ढूढ़ने ढूँढ़ने की तुम्हारी मुहिम
तुम्हें तोड़ रही है कहीं गहरे में
मगर मैं क्या करूं करूँ माँ
नए-नए रिश्तों की बुनावट
की कल्पना से ही सिहर जाती हूँ मैं
नहीं कर पाती हूँ फ़र्क
मैं तो बिलकुल नहीं
हरगिज़ नहीं........!!
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