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06:50, 19 मई 2010
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ज़िन्दगी जीने की आती हुई हवाएँ कला सिखाना मायूस होने लगी थीं भूल गए मुझे मेरे बुजुर्ग। मैंने देखा लोगों ने बिछाए फूल मेरी राहों ख़ुशबू की तलाश में, प्रफुल्लित थी मैं !पहला क़दम रखते ही फूलों के नीचे दहकते शोले मिले ,क़दम वापस खींचना मेरे स्वाभिमान को गँवारा नहीं दुर्गन्ध का साम्राज्य था इस एक क़दम ने हर तरफ फैला हुआखींच दी तस्वीर यथार्थ कीआदमी तो आदमी दे दी ऎसी शक्ति दिमाग तक सड़ा हुआ!!मेरी आँखों में जो अब देख लेती हैं भटकती ही रह गई परदे के पीछे का सच हर क़दम अंधेरी राहों पर लगता है रोशनी की तलाश में !!आ गया है चक्रव्यूह का साँतवा द्वार जिसे नहीं सिखाया तोड़ना ज़िंदा आदमी की भी मेरे बुजुर्गों ने मुझे और हार जाऊँगी अब बेनूर सी आँखें !किन्तु वाह रे स्वाभिमान हवाओं को शंका हुई जो हिम्मत नहीं हारता अपने ही क़दम पर जो कहीं ग़लत तो नहीं स्वीकारता आई वे कि मैं चक्रव्यूह में फँसी अभिमन्यु हूँ।जिस पर वार करते हुए सातों महारथीभूल जाएँगे युद्ध का धर्म एक बार पुनः ललकारने लगता ये धरती ही है मेरे अन्दर का कृष्ण ,मुझे कि उठो ,युद्ध करो न !और जीत लो !!ज़िन्दगी का महाभारत .पुनः आँखों में ज्वाला भरे आगे बढ़ते क़दमों के साथ सोचती हूँ मैं कि ज़िन्दगी जीने की कला सिखाना भूल गए मुझे....
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