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* [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन}}  जगत-घट को विष से कर पूर्ण / हरिवंशराय बच्चन]]* [[किया जिन हाथों ने तैयार, लगाया उसके मुख पर, नारि, तुम्‍हारे अधरों का मधु सार,  :::नहीं तो देता कब का देता तोड़ :::पुरुष-विष-घट यह ठोकर मार, :::इसी मधु को लेने को स्‍वाद :::हलाहल पी जाता संसार!  जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़ / हरिवंशराय बच्चन]]* [[प्रलय हो जाएगा तत्‍काल, मगर सुमदिर, सुंदरि, सु‍कुमारि, तुम्‍हारा आता मुझको ख्‍याल;  :::न तुम होती, तो मानो ठीक, :::मिटा देता मैं अपनी प्‍यास, :::वासना है मेरी विकराल, :::अधिक पर, अपने पर विश्‍वास!  हिचकते औ' होते भयभीत / हरिवंशराय बच्चन]]* [[सुरा को जो करते स्‍वीकार, उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहार हलाहल बनकर देता मार;  :::मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूम :::हलाहल पी जाते सह्लाद, :::उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍त :::अमर मदिरा का मादक स्‍वाद।  हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त / हरिवंशराय बच्चन]]* [[नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान, अमृत भी मुझको अस्‍वीकार अगर कुंठित हो मेरा मान;  :::दृगों में मोती की निधि खोल :::चुकाया था मधुकण का मोल, :::हलाहल यदि आया है यदि पास :::हृदय का लोहू दूँगा तोल!  कि जीवन आशा का उल्‍लास / हरिवंशराय बच्चन]], कि जीवन आशा का उपहास, कि जीवन आशामय उद्गार, कि जीवन आशाहीन पुकार,  :::दिवा-निशि की सीमा पर बैठ :::निकालूँ भी तो क्‍या परिणाम, :::विहँसता आता है हर प्रात, :::बिलखती जाती है हर शाम!  * [[जगत है चक्‍की एक विराट / हरिवंशराय बच्चन]]* [[पाट दो जिसके दीर्घाकार- गगन जिसका ऊपर फैलाव अवनि जिसका नीचे विस्‍तार;  :::नहीं इसमें पड़ने का खेद, :::मुझे तो यह करता हैरान, :::कि घिसता है यह यंत्र महान :::कि पिसता है यह लघु इंसान!  रहे गुंजित सब दिन, सब काल / हरिवंशराय बच्चन]]* [[नहीं ऐसा कोई भी राग, रहे जगती सब दिन सब काल नहीं ऐसी कोई भी आग,  :::गगन का तेजोपुंज, विशाल, :::जगत के जीवन का आधार :::असीमित नभ मंडल के बीच :::सूर्य बुझता-सा एक चिराग।  नहीं है यह मानव की का हार / हरिवंशराय बच्चन]]* [[कि दुनिया यह करता प्रस्‍थान, नहीं है दुनिया में वह तत्‍व कि जिसमें मिल जाए इंसान,  :::पड़ी है इस पृथ्‍वी पर हर कब्र, :::चिता की भूभल का हर ढेर, :::कड़ी ठोकर का एक निशान :::लगा जो वह जाता मुँह फेर।  हलाहल और अमिय, मद एक / हरिवंशराय बच्चन]], एक रस के ही तीनों नाम, कहीं पर लगता है रतनार, कहीं पर श्‍वेत, कहीं पर श्‍याम,  :::हमारे पीने में कुछ भेद :::कि पड़ता झुक-झुक झुम, :::किसी का घुटता तन-मन-प्राण, :::अमर पद लेता कोई चूम।  * [[सुरा पी थी मैंने दिन चार / हरिवंशराय बच्चन]]* [[उठा था इतने से ही ऊब, नहीं रुचि ऐसी मुझको प्राप्‍त सकूँ सब दिन मधुता में डूब,  :::हलाहल से की है पहचान, :::लिया उसका आकर्षण मान, :::मगर उसका भी करके पान :::चाहता हूँ मैं जीवन-दान!  देखने को मुट्ठी भर मुट्ठीभर धूलि / हरिवंशराय बच्चन]]* [[जिसे यदि फँको उड़ जाय, अगर तूफ़ानों में पड़ जाय अवनि-अम्‍बर के चक्‍कर खय,  :::किन्‍तु दी किसने उसमें डाल :::चार साँसों में उसको बाँध, :::धरा को ठुकराने की शक्‍त‍ि, :::गगन को दुलराने की साध!  उपेक्षित हो क्षिति से के दिन रात / हरिवंशराय बच्चन]]* [[जिसे इसको करना था, प्‍यार, कि जिसका होने से मृदु अंश इसे था उसपर कुछ अधिकार,  :::अहर्निश मेरा यह आश्‍चर्य :::कहाँ से पाकर बल विश्‍वास, :::बबूला मिट्टी का लघुकाय :::उठाए कंधे पर आकाश!  आसरा मत ऊपर का देख / हरिवंशराय बच्चन]], सहारा मत नीचे का माँग, यही क्‍या कम तुझको वरदान कि तेरे अंतस्‍तल में राग;  :::राग से बाँधे चल आकाश, :::राग से बाँधे चल पाताल, :::धँसा चल अंधकार को भेद :::राग से साधे अपनी चाल!  * [[कहीं मैं हूँ हो जाऊँ लयमान / हरिवंशराय बच्चन]], कहाँ लय होगा मेरा राग, विषम हालाहल का भी पान बढ़ाएगा ही मेरा आग,  :::नहीं वह मिटने वाला राग :::जिसे लेकर चलती है आग, :::नहीं वह बुझने वाली आग :::उठाती चलती है जो राग!  * [[और यह मिट्टी है हैरान / हरिवंशराय बच्चन]]* [[देखकर तेरे अमित प्रयोग, मिटाता तू इसको हरबार, मिटाने का इसका तो ढोंग,  :::अभी तो तेरी रुचि के योग्‍य :::नहीं इसका कोई आकार, :::अभी तो जाने कितनी बार :::मिटेगा बन-बनकर संसार!  पहुँच तेरे आधरों अधरों के पास / हरिवंशराय बच्चन]] हलाहल काँप रहा है, देख, मृत्‍यु के मुख के ऊपर दौड़ गई है सहसा भय की रेख,  :::मरण था भय के अंदर व्‍याप्‍त, :::हुआ निर्भय तो विष निस्‍तत्‍त्‍व, :::स्‍वयं हो जाने को है सिद्ध :::हलाहल से तेरा अमरत्‍व!
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