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Kavita Kosh से
सकुचता, सिहरता, सहमता, लजाता
उतर चाँद ज्यों झील में झिलमिलाता
ये आँखों की अनबूझ, अनमोल भाषा
पलटकर ये फिर लौटने का दिलासा
ये बिंदी मिटी-सी, ये काजल पुँछा-सा
हँसी ज्यों शहद में डुबोई हुई है
कोई तान होठों होँठों पे सोयी हुई है
जिसे गा रहा है सवेरे-सवेरे
कोई जा रहा है सवेरे-सवेरे
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