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Kavita Kosh से
अन्न और रोज़गार का ज़िक्र उसे नहीं भाता
समता और न्याय गए दिनों की बातें हो गईं
व्यस्त है नई-नई पोशाकें छांटने छाँटने में
मेरी कविता इन दिनों