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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
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[[Category:कविता]]
<poem>

कोयल की कुहक का यहीं अंत है
माना, पुन: लौटता वसंत है

तरु से पत्र आज झड़ गया
आयेगा रूप लिए फिर नया
जीवन अमर है यही जानकर
आती न हो वायु को तनिक दया
रोता ही रहा परन्तु वृंत है

सिन्धु-तीर लहरों का ताँता है
मन का जुड़ गया कहीं नाता है
सलिल वही लौटता हो बार-बार
ज्वार वही लौट नहीं पाता है
क्या हो जो सृष्टि-क्रम अनंत है

कोयल की कुहक का यहीं अंत है
माना, पुन: लौटता वसंत है
<poem>
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