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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
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[[Category:गीत]]
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मैंने दर्पण तोड़ दिया है
वह बाहर का बनना और सँवरना छोड़ दिया है

भला-बुरा जो भी जैसा हूँ
अब कुल वैसे का वैसा हूँ
कैसे बतलाऊँ, कैसा  हूँ!
मैंने दीपक की लौ को सूरज से जोड़ लिया है
 
मन की आतुरता के मारे
कहाँ नहीं थे हाथ पसारे!
देव रहे झूठे वे सारे
नित जिनके दर पर जा-जाकर माथा फोड़ लिया है
 
सुख की मृग-तृष्णा भर ही थी
पूर्णकामता अन्दर ही थी
मंजिल तो पांवों पर ही थी
जब जाना यह, अपना मुँह भीतर को मोड़ लिया है

मैंने दर्पण तोड़ दिया है
वह बाहर का बनना और सँवरना छोड़ दिया है
<poem>
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