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<poem>
दफ्तर के जिस कमरे में बैठता हूँ रोज
बस एक दरवाजा है उसमें
जिसे भेदते आते हैं अखबार और
हफ्ते में चार दिन आती हैं चिट्ठियाँ

दो खिड़कियाँ भी हैं जिनसे बिनसंकोच आती हैं हवाएँ
कभी-कभार मेज पर आ बैठता है सूर्य का कोई दीपित टुकड़ा
या धूपछाँही परछाई चिड़िया की

बहुत मुमकिन है किसी दिन न पहुँचे अखबार और
इस मौसम में बंद रह जाएँ खिड़कियाँ
तब कैसा मनहूस होगा मेरा दिन

रोक नहीं पाऊँगा अपने आपको बावजूद इसके
कि उठ रहीं होंगी हवाएँ कोर-कोर दहलातीं

खोलूँगा तब भी कम से कम एक खिड़की कि
हवाओं के उग्र तेवरों में छुपी कोई तो खबर होगी अपनों की

कुछ देर के लिए सही खिड़की खोलूँगा जरूर मैं
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