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अब भी / लीलाधर मंडलोई

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<poem>
हमने कोई दुआ नहीं की
हमने शहर की गलियों में फातिहा नहीं पढ़ा
हमने किसी के मकान में पनाह नहीं ली
हमने अमन का नारा बुलंद नहीं किया

न हम इतने अहम थे
कि हमें गोली से उड़ा दिया जाता
हत्या की कार्रवाई के दौरान
हम महफूज रहे और अपीलें जारी कीं

हमने कातिलों के खंजर की शिनाख्त नहीं की
हमने रोजनामचे में कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की
हम सिर्फ वर्दी को पहचानते रहे
हमें क्या मालूम था कि वर्दी का जिस्म
किसी कातिल में तब्दील हो जाता है

हमें मारा नहीं गया
लेकिन हम जिंदा भी कहाँ बचे
रूह का क्या कीजे
वह बिना किसी गोली के हलाक होती रही
यह शहर पूरी तरह गर्क नहीं हुआ
न हमारी रूह पूरी तरह हलाक
रात के सिम्त कहानियाँ हैं
और रूह के पास कुछ कर गुजरने वाली आवाज

हम अपने बोसों को आबाद कर सकते हैं अब भी
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