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|रचनाकार=कुमार अनुपम
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<Poem> लौटने के लिए वह घर लौटता यहाँ तो ऐसा ही होता रहा हैऔर साथ में एक ऑफ़िस लाता हैआप नये हैं न जान जाएँगे यहाँ की कार्य-प्रणाली—सर्वग्य भाव से भरे कुछ असमय-बुजुर्ग-युवा अपनी गलतियाँ छुपाते हुए ऐसा दोहराते हैं जब तब
दरवाज़ा खोलने में हुई ज़रा-सी देरी के लिएजो यहाँ हैंफटकारता है पत्नी को माँगता है पूरे दिवस की कार्य-रिपोर्टसहमी हुई वह गिनाती है रोज़मर्रा गृहस्थी के काम जिसमें जूझती रही सगरदिनवह एक मामूली गृहस्थी के मामूली कामों को उसकी साधारणता समेत खारिज करता है और कुछ असाधारण काम-धाम करने की आदेशनुमा सलाह में लपेटउसकी गृहस्थी की मामूली फाइल हिकारत के हाथों सौंप देता हैवे यहीं थे जैसे अनन्तकाल से
बच्चे दरवाज़े और करुणा की ओट जो यहाँ सेकुछ चाकलेट कुछ टॉफ़ियों की नाउम्मीदी में किसी सपने में लौट जाते हैं तरह विदा हुएया सोने वे जैसे कभी थे ही नहीं स्मृतियों तक में व्यस्त दिखने के अभिनय में मशगूल हो जाते हैं मन मार उन्हें पता है शायद कि ऑफ़िस में चाकलेट और टाफियाँ नहीं मिलतीं जो दुहराता है अकसर उनका पिता
वह अधिकारी-आवेश में झिंझोड़कर जगाता है बच्चों को अधनींदऔर धमकाता है कि तुम सबकी मटरगश्तियाँ और लापरवाहियाँअब और बरदाश्त के नाकाबिल कि अधिक मन लगाओ कि तुम पर, सोचो ज़रा, कितना इन्वेस्ट किया जा रहा है लगातारतुम पर हमारे कई प्लान डिपेंड जो डटे हैं और कई योजनाएँ तो तुम्हारे ही कारण स्थगिततुम्हीं हो हमारी उम्मीद की मल्टीनेशनल लौ जिसकी जगरमगर में हमारा भी भविष्य देदीप्यमान बच्चे फिर भी अपनी कारस्तानियों के स्वप्न में दाख़िल हो जाते वे ऐसे हैं इतने में पत्नी लगा देती है भोजनवह स्वादिष्टï लगते पकवान का छुपा जाता है राज़और निकालता है मीनमेख कि अबपहले-सी बात नहीं रही तुममें न पहले-सा स्वादजबकि जानता है कि अधिकतम समर्पण से बनाया गया है भोजन पत्नी कुढ़ती है और किसी आशंका मे अपनी घर-गृहस्थी समेत डूब जाती हैवह लगा लगाकर गोते उसे खींच खींच निकालता है बार बार और उससे सहयोग की कामना करता है वह स्वीकारती है अनमने मन से आज का अन्तिम फरमान और ध्वस्त हो जाती है वह बॉस की तरह मन्द मन्द मुस्कुराता रहता है और किसी विजेता-भाव में बिला जाता है। जैसे यहीं रहेंगे अनन्तकाल तक...।
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