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Kavita Kosh से
तुम जो दुविधा में रही प्रेम की विवशता की
तीर इस भाव से फेंका कि पार हो न सका
मैं तड़पता ही रहा पीर लिए लिये प्राणों में
मरके भी मर न सका, हँस न सका, रो न सका
३.
४.
बोलना किसीसे, देख लेना किसी और को
हृदय किसीका छेंकिसीका छीन, देना किसी और को
आपकी कला थी, किन्तु काल बनी प्राण की
नाव में बिठा के मुझे, खेना किसी और को
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